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पारस पीपल Paaras Peepal (Thespesia Populnea)

यह सदा हरित पीपल की तरह लेकिन छोटा वृक्ष बड़े गमले में लगाया जा सकता है। इसकी लक (छाल) और कान्ड सार में टेनिन 7 प्रतिशत एवं एक लाल रंजक द्रव्य होता है। बीजों से लाल रंग का गाढा तेल 20 प्रतिशत निकलता है।

अनुभूत प्रयोग :

  1. पारस पीपल के 2 या 3 बीजों को शक्कर के साथ देने से संग्रहणी, बवासीर, सुजाक और पेशाब की गर्मी में लाभ होता है।
  2. इसके पक्के फलों की राख में मिलाकर लगाने से और इसका काढा बनाकर पिलाने से दाद और खुजली में आराम मिलता है।
  3. इसके पत्तों को पीसकर गरम करके लेप करने से जोडों की सोजन और पित्तज शोध (सोजिश) में आराम मिलता है।
  4. इसके फूलों के रस का लेप करने से दाद मिटता है।

इसके पत्तों पर तेल चुपड़ कर गरम करके बांधने से नारू रोग द्वारा पैदा हुए छाले ओर घाव पर शीघ्र आराम मिलता है।

पीपल (Piper Longum)

यह एक छोटा भूमि पर फैलने वाला पौधा है जो तने की गाँठ को जमीन में दबाकर लगाया व बढाया जा सकता है। पीपल के फल (पीपरी) ह्रदय को शकित देने वाले, दस्त लाने वाले, रक्त साफ करने वाले तथा पित्तविकार का शमन करने वाले होते है। ये जलन, प्यास और विष के प्रभाव को भी नष्ट करते है। पीपली के हरे पक्के फलों को नींबू के रस में डालकर रखने व भोजन के बाद एक या दो फल खाने से उपरोक्त लाभ मिल जाते हैं अर्थात यह उपयोगी औषध है।

इसके अतिरिक्त पीपली के पत्तों को एरंड का तेल लगाकर और गरम करके नाडुवों के ऊपर बांध देने से पेट के कृमि बाहर निकल जाते हैं।

पीपली के तने व छाल को जलाकर उसकी भष्म मूत्रेन्द्रीय के घाव पर भरने से त्वचा स्वच्छ हो जाती है। इसकी भष्म को यदि चौथार्इ ग्राम की मात्रा में शहद में मिलाकर बार-बार चटाया जाय तो अपचन, उल्टी और दाय आदि की शानित होती है।

जापानी पोदीना – Japanese Mint (Mentha Arvensis)

लुभावनी खुश्बू का यह पौधा प्रसाधन सामग्री, बेकरी उत्पादों, पान-सिगरेट आदि अनेक दैनिक उपयोग की वस्तुओं में काम आता है। चटनी में, पानी में डालने, मुँह साफ करने, दर्द कम करने व खांसी आदि में इसका उपयोग बहुलता से किया जाता है। इस पौदीने से अधिकतम मात्रा में मैन्थाल सुगंधीय तेल (60 से 90 प्रतिशत) प्राप्त होता है जो इसका मुख्य घटक है।

साधारण पौदीने की तरह ही जापानी पौदीना भी खाद युक्त भूर भूरी भूमि उगाया जाता है। भूमि में जल भराव कभी नहीं होना चाहिये जबकि नमी रहनी चाहियें। घर में छोटे क्यारों में एक-एक फुट पर इसके 6” से 8” की अंकुरित भूस्तरियों द्वारा उत्पादन किया जाता है जो गर्मी आने के साथ ही खूब बढ जाते है। 5-6 गमलों में लगा दे तो पूरी गर्मी में घर की आवश्यकता पूरी हो सकती है। पत्तियों को सुखा कर बाद में काम लेने के लिये भी रखा जा सकता है। उत्पादक हेतु भू-स्तरीय “तपोवन आश्रम” से प्राप्त किये जा सकते है।

नींबू घास – Lemon Grass (Cymbopogan Flexuosus)

अधिकतम मात्रा में निर्यात किया जाने वाला नींबू घास तेल साबून, डिटर्जेन्ट सौन्दर्य प्रसाधनों एवं अन्य घरेलू उत्पादों में सुगन्ध के रूप में काम आता है। इसके पत्तों को उबाल कर स्वादिष्ट एवं उपादेय चाय मन को प्रफुलिल्त करती है। इसमें मुख्य घटक सिट्रल (75-90 प्रतिशत) एवं अनेक द्रव्य और विटामिन ‘ए’ भी है।

नींबू घास दोमट मिट्टी में बीज अथवा जड़ के टुकडो द्वारा पैदा की जा सकती है। बुवार्इ के 90 दिन बाद पत्तियाँ काटने योग्य हो जाती है वर्ष में 3-4 बाद कटार्इ की जा सकती है।

घर आंगन में छोटे क्यारें अथवा 5-6 गमलों में जड़ की कटिंग लगा कर नियमित काम में लेने को पत्तों का उत्पादल किया जा सकता है। जड़ की कटिंग, “तपोवन आश्रम” से प्राप्त की जा सकती है।

मधु तुलसी – Madhu Tulsi (Stevia Rebaudiana)

शक्कर से कर्इ गूना मीठा शून्य कैलोरी पौधा

            आज के समय मे मधुमेह व मोटापे की समस्या एक महामारी का रूप लेती जा रहीे है। इसके फलस्वरूप न्युन कैलोरी स्वीटनर्स हमारे भोजन के आवश्यक अंग बन चुके है। इन उत्पादों के पुर्णतया सुरक्षित न होने के कारण मधु तुलसी का प्राकृतिक स्त्रोत एक वरदान सबित हो रहा है। जो शक्कर से लगभग 25 से 30 गुना अधिक मीठा केलोरी रहित है व मधुमेह व उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए शक्कर के रूप मे पुर्णतया सुरक्षित है व सार्इड इफेक्टस से मुक्त है इसके पत्तों मे पाये जाने वाले प्रमूख घटक स्टीवियोसाइड, रीबाडदिसाइड व  अन्य योगिकों में इन्सुलिन को बैलेन्स करने के गुण पाये जाते है। जिसके कारण इसे मधुमेह के लिए उपयोगी माना गया है। यह एन्टी वायरल  व एंटी बैक्टीरियल भी है तथा दांतो तथा मसूड़ो की बीमारियों से भी मूकित दिलाता है। इसमे एन्टी एजिंग, एन्टी डैन्ड्रफ जैसे गुण पाये जाते है तथा यह नॉन फर्मेंतेबल होता है। 15 आवश्यक खनिजो (मिनरल्स) तथा विटामिन से युक्त यह पौधा विश्वभर मे व्यापक रूप से उपयोग में लिया जा रहा है।

स्टीविया बहुवर्षीय कोमल हर्ब है जो रेतीली दोमट भुमि मे जहाँ पर पानी की बहुतायत हो उगाया जा सकता है यह बीज, कटिंग अथवा पौध से लगाकर रेपित किया जा सकता है। क्योकि इसकी पत्तियां ही उपयोग मे आती है। फलों को तोड़कर फैंक दिया जाता है। सामान्यतया, फूल रोपन के 50 दिन पश्चात दिखार्इ देने लग जाते है। अत: इनकी तुड़ार्इ इससे पुर्व करते रहना चाहिए। बाद मे हर 3 माह में पत्तियों की कटार्इ 3” ऊ तक काँट कर करनी चाहिये।

घर में उपयोग लेने की विधि

            पाँच पौधे छोट 5 व बडे 2 गमलों में आधी रेतीली मिट्टी व आधा खाद भर कर लगावें। शुरू में रोजाना व बाद में हर तीसरे दिन पानी देवें। लगभग 50 दिन में पत्तियाँ भर जायेगी। फूल आने से पहले पौधों को जमीन से 3” ऊँचार्इ से काट कर पत्तियों को ताजा काम में लें अथवा छाया में सुखा कर मिक्सी में पीस कर रख सकते है व आवश्यक्तानुसार चीनी के रूप में चूर्ण को काम में ले सकते है।

तुलसी (Ocimum Sanctum) Tulsi, Holy Basil

मंदिरो में प्रसाद के रूप में दी गर्इ तुलसी की 4-5 पतियों को मुँह में रखकर खाने का विधान है। भगवती वृन्दावनी जो भगवान विष्णु को प्रिय थी उनकी स्वरूप मान्य यह पौधा औषघीय गुणों से भरपूर है। इसकी कोमल पत्तिया खाने से बुखार, जुकाम, श्वास की बीमारियां, पथरी, ह्रदय की विÑतियों से बचाव होता है। अत: हर घर में यह पौधा अनिवार्य रूप से होना चाहिए।

विशेष प्रयोग :

  1. ज्वर (बुखार) में स्वेड (पसीना) लाने के लिये 7 तुलसी के पते, 3 काली मिर्च पीस कर, 5-6 कटोरी पानी डालकर उसे एक कटोरी रहने तक गरम करें। यह गरम सा पानी सोते समय पीने से सर्दी जुकाम सहित ज्वर में बहुत लाभ होता है।
  2. उदरशूल (पेट का दर्द) में तुलसी पत्र का रस एवं नींबू का रस पीने से बहुत लाभ होता है।
  3. हनुग्रह (मुख भाग जकड जाना) में तुलसी पत्र स्वरस की नस्य लेने (नाक में डालने) से शीघ्र आराम मिलता है।
  4. मलेरिया, बुखार और सर्दी से आने वाले तेज बुखारों में तथा पसली के दर्द में तुलसी के दस पत्रों का स्वरस शहद में मिलाकर दिन में 3-4 बार पीने से बहुत लाभ होता है

उलिटयां होने पर तुलसी को पोदीना एवं सौंफ के अर्क में मिलाकर पिलाने से उलिटयां बंद हो जाती है।

असगंध – Asgandh (Withania Somnifera)

यह एक झाडीदार रोमश एक से दो फुट ऊँचा पौधा है जो बीज से उगता व फैलता है। इसकी जड़ में उडनशील तेल विधेनियाल एवं फार्इटोस्टेराल आदि पदार्थ होते है। जड़ पोषिटक, चातुवर्धक औा कामोत्तेजक होती है। यह क्षय रोग (टी.बी.), निर्बलता, गठिया रोग में बहुत लाभप्रद होता है।

अनुभूत प्रयोग :

  1. बलवर्धन में – सफेद मूसली, विधारा व इसकी जडो के चूर्ण में मिश्री मिलाका फाँकी लेने से बल एवं वीर्य बढता है।
  2. गठिया में – इसके पंच्यांग (जड़, पत्ती, फूल, तना, बीज) का रस निकालकर पीने से बहुत लाभ मिलता है।
  3. कटिशूल में – असगंध के चूर्ण में मिश्री मिलाकर घी के साथ सेवन करने से कमर का दर्द मिट जाता है।
  4. ग्रनिथ शोध (गठन सोजिश) में इसकी जड़ और पत्रों का लेप करने से तुरन्त आराम मिलता है।

इसकी एक-एक पती दिन में 3 बार पानी के साथ लेने से मोटापा कम होता है।

गलोय (अमृता) Galoy – Tinospora Cordifolia

यह एक अमृत तुल्य बहु-उपयोगी बहु-वर्षीय औषधीय लता है जो नीम के वृक्ष पर चढकर अधिक गुणकारी सिद्ध होती है। इसके पौधे कलम से तैयार किये जाते हैं जो प्रारम्भ में बहुत धीरे बढ़ते हैं परन्तु साधारणतया मरते नहीं है।

अनुभूत प्रयोग :

  1. पुरानी गठिया और पेशाब की बिमारी में इसका क्वाथ या शीत निर्यास पीने से बहुत लाभ होता है।
  2. गिलोप का काढा या शीत निर्यास पिलाने से सित्रयों में स्वेत प्रदर की बीमारी समाप्त हो जाती है। शतावरी के साथ इसको उबालकर पिलाने से बीमारी में और भी अच्छा लाभ होता है।
  3. ब्राहमी के साथ इसका काढा बनाकर पिलाने से दिल की धडकन में वृद्धि होना और पागलपन का दौरा मिटता है।
  4. इलायची, वंश लोचन और गिलोप के सत को शहद के साथ चटाने से क्षय रोग (टी.बी.) में बहुत लाभ होता है।
  5. लोप की जड का क्वाथ बनाकर पीने से बारी-बारी से आने वाले ज्वर में शीघ्र आराम होता है।
  6. इसकी जड़ का काढा बनाकर पीने से सांप के विष में आराम मिलता है।
  7. गिलोप के क्वाथ को पीने से फोडे, फुनिसया समाप्त हो जाते है।

नियमित उपयोग विधि :

गिलोप तने की 5 ” लम्बी टहनी को छोटे-छोटे टुकडो में काटकर कूट लें व शाम को एक गिलास पानी में भिगो कर रख दें। प्रात: इसको छान कर पी लेने से सब ही रोगो में तुरन्त आराम मिलता है।

ब्राहमी Brahmi (Bacopa Monnieri) अथवा मंडूक पर्णी (Centilla Asiatica)

इन दोनों समान गुण वाले पौधों की पत्तियां मेध्य होने से स्मृति वर्धक (बुद्धि वर्धनार्थ) के रूप में अत्यत उपयोगी सिद्ध हुए है। यह प्रसरी (फैलने वाला) कोमल, सरस, ग्रंथि युक्त पौधा है जो जमीन में फैल जाता है। आद्र एवं जलासन्न भूमि इसकी बढोतरी के लिए उपयुक्त होते है।

स्मृति विकास के अलावा इसके अनेकों अनुभूत प्रयोग है।

  1. शोध एवं वेदना युक्त रोगों एवं विष में इसका प्रलेप करते हैं।
  2. बच्चों के श्वास कास में इसका गरम लेप सीने पर किया जाता है।
  3. उन्माद, अपस्मार आदि मानसिक रोगों में इसका चूर्ण, रस, अवलेह आदि के रूप में प्रयोग लाभप्रद होता है।

साधारणतया प्रात: इसकी 3-4 पत्तियों का सेवन करने से सब लाभ प्राप्त हो जाते है।

चमेली मोगरा जुही (जाती) Jasminum Grandiflorum

ये पौधे समस्त भारत में बागबगीचों में लगाए जाते है। चमेली का विश्व विख्यात सुगंधित तेल इससे तैयार किया जाता है। चमेली का प्रसारन कलम या दाब विधि से किया जाता है।

प्रयोग :

  1. चमेली की जड उबटन में मिलाकर या अकेले लगाने से व्रण सुधरता है।
  2. दात के दर्द में व दातों की जडे कमजोर होने में चमेली के पत्ते चबाने से आराम मिलता है।
  3. कान के दर्द या पीप पडने पर इसके पत्तें से सिदध तेल कानों में डालने पर शीघ्र आराम मिलता है।
  4. नेत्र रोगों में पुष्पों का लेप और स्वरस डालने से लाभ मिलता है।